भोपाल से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की बहुचर्चित पत्रिका समरलोक के ताजे अंक मे मेरी कहानी भादों की दोपहर छपी है । संपादक पदमश्री मेहरुन्निशा परवेज़ ने इसे रेखाचित्र विशेषांक मे स्थान दिया है । बहुत से दोस्तों और पाठकों की बधाइयां मिलीं , बहुत अच्छा लगा ।
दोस्तों , यह कहानी मेरे मन की कहानी है । कितने सालों से यह कहानी मेरे मन में चल रही थी । यह मेरे बचपन के अनुभव के आधार पर लिखी गई है । बस कहानी बनाने के लिए अंत को थोड़ा बदलना पड़ा है । एक मुस्लिम परिवार हमारे पड़ोस मे रहता था । उसमे दो लड़कियां थीं । बड़ी आपा की शादी हुई तब में कक्षा ६ मे पढता था । डिलिवरी के समय उनकी मौत हो गई । उस परिवार के उस समय के दुःख को मेने बहुत पास से देखा है । दो महीने बाद ही उनके दामाद हमारे घर आए और मेरी माँ से बोले की आप उनके घर हमारा संदेश पहुँचा दो की अगर बो लोग तैयार हैं तो हम छोटी लड़की से शादी करना चाहते हैं ।
यह सुनकर ही मेरी माँ उन पर गुस्सा हो गई और बोली - यह बात आप ख़ुद क्यों नहीं कहते । वेसे भी यह ग़लत है । वे बोले - नहीं आंटी जी , हम लोगों मे एसा चलता है ।
मेरी माँ ने संकोच करते हुए छोटी आपा के लिए उनकी अम्मी से बात कही और कहा की आप ऐसा बिल्कुल ना करना । उस पर बहुत हंगामा भी हुआ । बस उसी घटना की जो स्मर्तियाँ मेरे पास थीं उसी के उधेड़ बुन से यह कहानी बनी है । मुस्लिम घर के माहोल और उनकी उर्दू शब्दाबली तक पहुचने मे थोडा श्रम करना पड़ा , हलाकि में कक्षा ८ तक उर्दू भी पढ़ा हूँ । यह भी उसी माहोल की बात थी । मेहरुन्निशा जी ने इसे समरलोक मे स्थान देकर मेरे उस स्मृति को सामने आने अक मौका दिया है ।
आप भी अपनी राय मुझे भेजिए - मेरा कहानी संग्रह "अहम ब्रह्मास्मि " १९९९ मे प्रकाशित हुआ है उस के बारे मे बाद मे बात करेंगे । मेरा पता - shambarin@yahoo.com
बुधवार, 3 दिसंबर 2008
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